Tuesday 7 May 2024

सतरंगी


हिमाचल में आए हुए आज चौथा दिन है। जहां हैं वो भी गांव ही है लेकिन बिहार के गांव जैसा नहीं है। अब एक जैसा होने की बात करना भी बेतुका सा है। गंगा के मैदान की समतल सपाट ज़मीन और हिमालय के पहाड़ों को देखना अपने आप में अलग एहसास है। यहां आसपास पहाड़ से छोटी छोटी जलधारा को आवाज़ दिन रात आती रहती है। चिड़ियों का चहकना शाम को जब बंद होता है तब झींगुर संगीत का जिम्मा ले लेता है। और शाम होते ही तारे दिखने लगते हैं। अनगिनत तारें जिन्हें गिन नहीं सकते। वैसे तारे गिनने के लिए तारों का दिखना जरूरी है जो की यहां मुमकिन हो पा रहा है। ऊपर से दिन में ये रंग बिरंगे पेड़ देखकर लगता है इंद्रधनुष ज़मीन पर शुरू होकर पहाड़ पर दूर तक फैला है। मैं चाहता हूं ये इंद्रधनुष इस पहाड़ से गंगा के समतल तक भी पहुंचे। और दुनिया के हर कोने तक। इस दुनिया को सिर्फ़ एक रंग की नहीं सतरंगी होने की ज़रूरत है।

@बोज़ो
6/05/2024

#sambhawna #himachal #mountain #rainbow #nature #village

Saturday 4 May 2024

पालमपुर और बस यात्रा

भोपाल में जब था तब एक बार एक आर्टिस्ट रिट्रीट के लिए उत्तराखंड गया था। उस वक्त पहली बार बादलों को इतने नज़दीक से देखा था कि छू सकूं। फिर पिछले साल चंपावत, उत्तराखंड पहुंचा था। तब भी पहाड़ों को देखकर एक अलग सी खुशी होती रही। इस बार पहली बार हिमाचल में हूं। लेकिन तीसरी बार पहाड़ों में हूं। पहली बार पालमपुर गया। वैसे पहले बैजनाथ पहुंचा। वहां से वापस पालमपुर गया। पालमपुर अपनी जिन बातों के लिए फेमस है उसमें से कोई भी कारण नहीं था मेरे जाने का।

पालमपुर को मैंने सिर्फ़ फिल्मों में देखा था। जब भी पहाड़ों की बात आती है तो चंबा, शिमला, या जम्मू जी होते हैं फिल्मों में। पालमपुर भी इन्हीं फिल्मों से मेरे ज़ेहन में बचपन से है जबसे मैंने सिनेमा देखा है और जबसे चीज़ें याद रही हैं। पालमपुर पहुंचने के बाद बस स्टैंड के आसपास की चीज़ें हो देखी। क्योंकि मुझे कंडबाड़ी, गांव भी लौटना था जहां की ये तस्वीर है। 

पालमपुर, पहुंचकर वहां के पहाड़ों को देखने के साथ साथ उस बचपन को भी देखा जहां ये नाम कैद था कभी। और ये महसूस करना अपने आप में कुछ पा लेने जैसा था। पालमपुर ज़्यादा देखा नहीं क्योंकि मैं पालमपुर को नहीं आया हूं। इसीलिए शाम से पहले बस लेकर लौटने लगा। बस से "ध्रमण" उतरना था। जब बस में बैठा तब एक पैसेंजर भी बगल की सीट पर बैठी। सोचा बात करूं। लेकिन अगले ही पल खिड़की से बाहर देखने लगा। बस कंडक्टर को बोला कि मुझे "ध्रमन" उतार दे। तब बगल की सीट पर बैठी, उसने कहा "आप फिकर मत कीजिए, ध्रमण आएगा तो बता दूंगी" 

ये सुनकर थोड़ी राहत हुई। अगले ही पल उसने पूछा "आप कहां से हैं? क्या करते हैं?" मैंने उसे बताया मैं बिहार से हूं। और मैं लिखने की कोशिश करता हूं" जवाब पाते ही उसके चेहरे पर एक भाव था जिसने उस भाव को सवाल में बदल दिया "इतनी दूर से यहां ध्रमण में क्या करने आए है?" मैंने मेरे वर्कशॉप के लिए "कंडबाड़ी" जाने के बारे में बताया। "आपको ट्रैवल पसंद है? मुझे तो बिल्कुल भी नहीं पसंद, मेरा बस चले तो हिमाचल से बाहर कहीं नहीं जाऊं" 

मैंने हंसते हुए कहा "हमारे बहुत से दोस्त हैं जिनको घूमना नहीं पसंद, ज़रूरी नहीं की सब एक जैसे हों" फिर उसने कहा बात तो सही है लेकिन अगर ऐसा होता की बिना ट्रैवल किए सारी जगहों पर घूम सकते तो ठीक था। ये कहते हम दोनों हंस पड़े। मैंने कहा "जादू तो कभी भी हो सकता है, जिस दिन होगा उस दिन आप बिहार भी आना, खूबसूरत जगह है" वो पालमपुर में किसी ऑफिस से लौट रही थी। 
ध्रमण के पहले ही उसने मुझे तैयार रहने को कहा। 
उतर कर मैंने नीचे से थैंक यू कहा। और बस चल पड़ी।

मैने बस को जाते देख मन ही मन कहा "दुनिया में जादू की कितनी कमी है"

- बोज़ो
4 मई 2024

#himachal #palampur

Thursday 11 April 2024

The Sorry Book

Introduction:

Neeraj Mittal's "The Sorry Book" emerges as a beacon of introspection and emotional resonance, inviting readers to embark on a transformative journey through its pages. In this review, we delve into the multifaceted layers of Mittal's narrative, exploring its profound impact on readers and the broader literary landscape.

Review:

"The Sorry Book" transcends storytelling boundaries, guiding readers through the labyrinth of the human psyche. Mittal's narrative prowess shines as he skillfully navigates themes of love, loss, and redemption, weaving a tapestry of emotion that lingers long after the final page.

At its core, "The Sorry Book" illuminates the human experience, prompting readers to confront their own vulnerabilities and struggles. Mittal's exploration of philosophical themes adds depth, inviting readers to ponder the mysteries of existence.

In essence, "The Sorry Book" is transformative, leaving an indelible mark on readers' hearts and minds. Mittal's storytelling and insights remind us of literature's power to inspire, provoke, and heal.
As a reader, diving into Neeraj Mittal's "The Sorry Book" was a deeply moving experience that left me contemplative, introspective, and profoundly touched. Mittal's storytelling prowess is undeniable, weaving intricate narratives that delve into the depths of human emotion and the complexities of interpersonal relationships.

Through his words, I felt a myriad of emotions - empathy for the characters' struggles, awe at the beauty of his prose, and a sense of connection to the universal truths he explores. Each page turned felt like peeling back layers of my own soul, confronting truths and vulnerabilities I may have otherwise overlooked.

Mittal's ability to capture the essence of human experience is nothing short of remarkable. He paints scenes with such vividness that I could almost smell the scent of the places he described and feel the weight of the emotions his characters carried.

After finishing "The Sorry Book," I found myself lingering in its world, mulling over its themes and messages long after I had closed its pages. It's a book that stays with you, prompting introspection and inviting reflection on the intricacies of forgiveness, redemption, and the human capacity for growth.

In essence, reading Mittal's work was not just an act of literary consumption but a journey of self-discovery and enlightenment. It's a testament to the power of storytelling to touch hearts, provoke thought, and inspire change.

Conclusion:

In conclusion, Neeraj Mittal's "The Sorry Book" transcends the boundaries of mere literature to become a transformative experience for the reader. It's a rare gem that not only entertains but also enlightens, offering profound insights into the human condition and the intricacies of relationships.

Personally, after reading this masterpiece, I felt an overwhelming sense of gratitude for having been granted access to Mittal's world of words. It's a world where empathy reigns supreme, where characters breathe life into the pages, and where profound truths are unveiled with every turn of phrase.

"The Sorry Book" is more than just a novel; it's a mirror reflecting the complexities of our own lives, urging us to confront our flaws, embrace forgiveness, and strive for redemption. It's a reminder that, despite our imperfections, there's beauty in the act of saying sorry, in the power of reconciliation, and in the resilience of the human spirit.

In essence, reading Mittal's work was not just an act of literary consumption but a journey of self-discovery and enlightenment. It's a testament to the power of storytelling to touch hearts, provoke thought, and inspire change. Mittal's voice echoes long after the final page is turned, leaving an indelible mark on the reader's soul and a lasting appreciation for the art of storytelling.
About the Author:

Neeraj Mittal's debut marks the beginning of a literary journey filled with wonder and discovery. With aspirations for more to follow, Mittal's narrative skill promises to captivate audiences for years to come. Neeraj Mittal stands as a beacon of literary prowess, crafting narratives that resonate deeply with readers across the globe. Born amidst the tranquil landscapes of Mehsana, Mittal's upbringing provided the fertile soil from which his literary genius blossomed. From the earliest moments of his youth, he found solace and inspiration within the sacred confines of the Mahadev temple, where the whispers of timeless tales wove their spellbinding magic.

Mittal's journey into the realm of storytelling was ignited by a humble spark of passion, which grew into a blazing inferno of creativity with each stroke of his pen. Through his writing, he breathes life into characters who dance across the pages, their stories intertwining with the very essence of his being.

Despite playful jests from his father about "misfortune" entering their home with his birth, Mittal's path to literary acclaim is one marked by resilience, determination, and an unwavering dedication to his craft. His entrepreneurial pursuits in Gujarat stand as a testament to his multifaceted talents, where he navigates the complexities of business with the same tenacity and vision that infuse his writing.

Yet, it is Mittal's indomitable spirit and boundless imagination that truly define him as an author. With his debut work, "The Sorry Book," Mittal ventures into uncharted literary territory, unearthing truths and insights that resonate deeply with readers on a profound level.

Tuesday 21 December 2021

लौटना


लौटना!
जैसे लौटते हैं बच्चें
शाम ढले,
झाड़ते हैं कपड़े से धूल
छुपाते हैं दोस्तों से दी गईं खरोंचें
ढूंढ़ते हैं घर में ताक पर रखी आलपिन
टूटे हुए बटन के लिए,
"कल चिंटू को देख लूँगा" का ख़्वाब
चेहरे के पीछे कहीं गुस्से में रहता है रोता
पर हर बार रहती है घर लौटने की ख़ुशी

ऐसे ही लौटना,
जैसे कभी कुछ हुआ ही नहीं था।

तुम जब भी लौटना,
एक बच्चे की तरह लौटना
सयाने होने के बाद भी...

@बोज़ो
21 दिसम्बर 2021

#poem #returning #bozokikalam #life #childhood

Friday 17 December 2021

अलग-अलग

कभी कभी दो अलग चीजें अलग अलग जगह होती हैं और जब उनसे अलग अलग जगहों पर मिलते हैं तो लगता है जैसे उतनी अलग बातें नहीं हैं बस अलग रहने मात्र से ही जो अंतर आया है इससे लग रहा ये दो एक ही जैसी चीजें अलग अलग हैं। पर कितना सच है न जो अलग-अलग चीजें अलग-अलग रहकर भी एक जैसे, एक ही सकते हैं और कभी एक सी चीज़ें एक जगह पर भी अलग-अलग रहतीं हैं। इतनी अलग की पीठ और पेट के बीच जैसी दूरी हो जाती है। बाकी अभी सुबह के चार बजने वाले हैं और लैपटॉप पर यूट्यूब सजेशन में गाना चल पड़ा है....जाने तेरे शहर का क्या इरादा है, आसमान कम परिंदें ज़्यादा है...

#different #ishq #love #waiting #bozo #bozokikalam 

Tuesday 14 December 2021

उदासी

In frame- Komal Mundhara


     अज़ीब बात है न। थोड़ी देर से पहले वाला जो थोड़ा सा वक़्त था उसमें अचानक से उदासी घिर आयी। ऐसी घिरी जैसे दिन में बादलों ने आसमान घेर कर कहा हो देखो रात वाली अमावस ऐसी होती है। फिर उदासी के इस अमावस में मैंने चाहा कहीं से कोई सुराख़ कर पाऊँ तो उदासी ख़तम हो। सारे उपायों के बाद बस थोड़े देर पहले ख़ुद से सवाल करने लगा। क्या इसबात पर उदास होना चाहिये जिस बात पर मैं उदास हो रहा हूँ? क्या औरों के साथ भी ऐसा होता होगा कि किसी बात पर उदास होकर वो ख़ुद से सवाल करते होंगे। क्यों होना है उदास इन बातों पर? 

      हम कभी कभी इतने अज़ीब होते हैं ख़ुद के लिए सामान्य रहना भी मुश्किल हो जाता है। सामान्य न रहना अज़ीब क्यों है? फिर सोचता हूँ ख़ुश रहना जहाँ संघर्ष सा हो वहाँ उदासी घिर आना स्वीकार्य तो नहीं ही होगा। पर ठीक है। ऐसे उदास दिनों के लिए बहुत सी यादें और क़िस्से हमारे पास होते हैं जिसे साथ बिठाकर रोया जा सकता है नहीं तो कम से कम एक दूसरे को निहारा तो जा सकता है। क्या आपके पास है ऐसे क़िस्से? ऐसी यादें?

Friday 10 December 2021

आम शादियों ने लिखी प्रधानमंत्री जी को चिट्ठी

डिअर प्रधानमंत्री जी!

कोमल चरणों में हम "आम शादी बिरादरी" का सादर प्रणाम स्वीकार कीजिये। हम सब कुशल नहीं हैं और नहीं हमारे होने से कुछ भी मंगल है। तो इधर का बहुत कुछ आपसे बतियाना है। आप स्वस्थ्य तन्दरुस्त और पहले से बेहतर हो यहीं कामना है। 

देखिए! आपको भी पता है शादियों का सीज़न अपने चरम सीमा पर है। जिधर देखिए फेसबुक व्हाट्सएप पर शादियां ही शादियां चल रही हैं लेकिन हमें अपने बिरादरी के शादियों से हमदर्दी है। चाहे आम शादियों में कितनी ही शिकायतें हों। दहेज़ के लिए लड़की वाले का ज़मीन बिक गया हो या 5 लाख का कर्ज़ हो गया हो। बाराती में डांस करने के लिए गौआँ (Vilagers) और बाराती के बीच मार हो गया हो। या फिर दूल्हे के जीजा अपने टाइम का बाक़ी दहेज़ के लिए नखरा करके नाराज़ हो गए हों। या की बड़की भौजी बीयूटी पार्लर न जा पाने के लिए नाराज़ हो। या की 200 की जगह 300 बाराती पहुँच जाने की वज़ह से खाना कम जाने की समस्या हो। मंडप पर लड़का पक्ष से मनचाहा गहना न चढ़ाया गया हो। इंजीनियर लड़का के नाम पर राशन की दुकान चलाने वाले लड़के से शादी हो रही हो। ये सारी शादियां हमारी बिरादरी के हैं "आम शादियां"।

आपने भी रामानंद सागर कृत "रामायण" देखा होगा। उसमें श्रीराम जी ने कितने सुंदर तरीक़े से बाण पर प्रत्यंचा चढ़ाया और बाण टूट गया। श्रीराम और माता सीता की शादी हुई। ये सदियों पहले की बात है इसीलिए थोड़ी सी भी ग़लती हो हमसें तो हमें क्षमा कर दें। श्रीरामचंद्र जी और माता सीता की शादी आम शादियों में से एक नहीं थी। सदियों से हम शादियों को उस शादी को प्रेरणा मानकर सफ़ल होने की प्रार्थना की जाती है। इनदिनों ऐसी शादियां तो कल्पना में ख़ुश रहने के लिए है। देखिए न अब तो त्रेता युग है नहीं कलयुग हैं। हर घर है रावण बैठा इतने राम कहाँ से लाऊँ वाली बात है। 

    हर बच्चा जिसे पढ़ने के लिए संसाधन उपलब्ध है वो अपनी पूरी ज़िंदगी अच्छे से पढ़ाई करने में गुज़ार रहा कि नौकरी मिल जाये। तो शादी की योग्यता पूरी हो। पहले हम आम शादियां भी काफ़ी ख़ुश रहती थीं। सरकारी नौकरी वाली शादियों में हमारा रुतबा रहता था। पर जब से प्राइवेटाईज़ेशन ज़ोरो शोरों से बढ़ रहा है बड़ा डर लगा रहता है। ऊपर से तो 2018 में हुए एग्जाम के रिजल्ट अभी भी पेंडिंग में हैं। बच्चे लुसेंट की किताबें लेकर सोते जागते हमारा सपना देखते हैं। बहुत से बच्चे जो सरकारी नौकरी करके शादी करके किसी के साथ घर बसाने का सपना लिए थे उनमें से बहुत से बच्चे प्रेमिका के बच्चे को 200 रुपये महीने ट्यूशन फ़ी लेकर पढ़ा रहे हैं। उन्हें अभी भी अपनी पूर्व प्रेमिका की बात पर यक़ीन है "हमसे बेहतर लड़की मिलेगी तुम्हें", ज़िस्म भले ही दूर है पर रूह हमेशा से तुम्हारा है। 
    
    फ़ॉर्म भरने के लिए बेरोज़गार बच्चे अगल बगल से कर्ज़े ले रहें हैं। कहीं एग्जाम सेंटर दूर हो गया तो बाइक से जाने का सोचते हैं लेकिन पेट्रोल का दाम  देखकर रोने लगते हैं। उनको रोता देखकर हमें विदाई में फूट फूट कर रोती हुई माएँ याद आती हैं। हमारा मन करता है कि हम होने ही नहीं चाहिए थे। इतना दुःख होता है। हम सबको लगता है महँगाई भी जब ऐसे बच्चों को रोते देखती होगी तो कालेज़ा फट जाता होगा।

  माफ़ कीजिये! पता नहीं अभी बहुत भावुक हो गयें हैं हम सभी। क्या बताने के लिए आये थे और क्या कह रहें हैं। ख़ैर! आप ऊपर के बेरोज़गारी, प्राइवेटाईज़ेशन, महँगाई पर बिल्कुल भी ध्यान मत दीजिये। पिछले 70 साल पर इसकी ज़िम्मेदारी डाल दीजिए। जैसे कुछ स्पेशल शादियों का बोझ हम आम शादियों पर आ जाता है। कोरोना के आने से जब पहली बार लॉकडाउन लगा तब हमें काफ़ी स्पेशल फ़ील कराया गया। हम आम शादी बिरादरी में भी सब स्पेशल लगने लगा था। सिर्फ़ 50 लोग। मास्क के साथ। डीजे नहीं।  हमें तब उन सभी लड़की पक्ष के लिए अच्छा लगा जिन्हें नॉर्मल दिनों में 5 लाख कर्ज़ लेने पड़ते। कोरोनकाल में हमारे अस्तिव से हमनें कईं पुस्तों को क़र्ज़ के चुंगल में जाने से बचते देखा। जो सक्षम लोग थे उन्होंने पुलिस वालों को भी बुलाया 200 और लोगों के साथ। अब कहाँ तक ही बताएँ। हम आम शादी हैं इंवेशटिंग ऑफिसर थोड़े न हैं।


   अभी सदियों से हमारे बिरादरी में थोड़ा बहुत नयापन आकर हमें इवॉल्व करता रहा है। कोरोना काल की आपदा में बहुत से लोगों के लिए हम अवसर बनें। उस वक़्त बहुत से कम लोगों ने फ़ोटो खिंचाया और पोस्ट किया दोस्तो को कम टैग किया कि कहीं 50 लोगों में शामिल न होने के कारण उन्हें दुःख न हो। हमें उस बात का दुःख नहीं है। हमें उतना दुःख नहीं कि बहुत से लोगों की शादियों में पहले प्रेमी ने आकर "जा सजना तुझको भूला दिया" गाया। हमकों इस बात का भी दुःख नहीं कि हमें हर बार समाज अपने हिसाब से यूज़ करे। 

प्रधानमंत्री जी!
हमें बहुत रोना इस बात का आ रहा है कि कैटरीना और विकी कौशल की शादी हम आम शादी से बहुत अलग हो रहा है। बात अलग होने तक का नहीं है। हर बिरादरी में उप बिरादरी होती है नयी बात नहीं है। लेकिन बहुत बुरा लग रहा कि सब कोई कॉमन फोटों ही शेयर कर रहा। सब सलमान ख़ान का मीम बना रहा। रणवीर कपूर की बात कर रहे हैं। ये वहीं लोग हैं जो हम आम शादियों से पहले लड़कियों को प्रेम क्यों कि के नाम पर कूटते हैं, प्रेमी को लापता कर देतें हैं। जिससे शादी होती है उस वर के सामने लड़की ने कभी किसी लड़के से बात की होगी जैसी बात दूर दूर तक नहीं लाते। लड़के का किसी से प्रेम था का ज़िक्र नहीं करते। ये सब लोग सलमान ख़ान का तेरे नाम वाला फ़ोटो शेयर कर रहे हैं। हमकों इस बात का भी कम दुःख है। हम आम शादियों में लोग मुश्किल से वीडियो कैमरा बुक करते हैं और कैसेट बनने का पैसा देते हैं। एक टाइम डिसाइड करके पूरी फैमिली के साथ देखते हैं। लेकिन ई वाले शादी में वीडियो का पैसा भी देखने वाले लोग भरेंगे। ई तो हम आम शादियों से बहुत बड़ा भेदभाव है। 

प्रधानमंत्री जी!
हम आम शादियों के साथ होने वाले इस भेदभाव को थोड़ा सा कम कीजिये। कम से कम जो लोग नहीं जा पाएं शादी में उनके लिए वीडियो तो मुफ़्त में मिले। 

भेदभाव मुक्त शादियों के उम्मीद में,
 "आम शादी बिरादरी"

Thursday 9 December 2021

परिभाषाएं

      
   परसों रात मैं शब्दों की उत्तपत्ति, शब्दों के भाव, शब्दों की यात्रा, शब्दों का संदर्भ सभी सोचते हुए कुछ लिखने की कोशिश कर रहा था। एक फोटोग्राफर भैया ने शायद मुझे तब से देख रहे थे जब मैंने शीर्षक "शब्द और जीवन" लिख लिया था। दो पैराग्राफ लिखने के बाद मैंने लिखना थोड़ा सा  रोका। वो भैया पास की कुर्सी पर आकर बैठे और पूछ लिया क्या करते हैं आप? अब ये सवाल कोई भी करता है तो मैं थोड़ी देर रुकता हूँ सोचता हूँ क्या क्या कहना है? कहना भी है कि नहीं। या बस कुछ नहीं कहकर मुस्कुरा देना है। पर उनके हाथ में कैमेरा था और महसूस हुआ कि खुलके बात की जा सकती है तो मैंने कह दिया "कभी कभी लिख लेता हूँ"। बाक़ी इंजीनियर हूँ। उन्होंने कहा "मैंने देखा आपको लिखते हुए"। शब्द और जीवन काफ़ी अच्छा शीर्षक है। मैंने मुस्कुरा कर धन्यवाद किया। उन्होंने फिर पूछा वैसे क्या लिख रहे थे? 

      मैं सोच रहा था कि शब्दों की उत्तपत्ति कैसे हुई होगी। जब सदियों पहले बिजली की आवाज़ से डर कर इंसान गुफाओं में डर कर भागा होगा उसने कैसे किसी और को बिजली के बारे में बताया होगा? पुरातत्वविदों ने बहुत सारी भाषाएँ और लिपियां ढूंढ ली हैं बहुत सी बातें पढ़ ली हैं। लेकिन बिजली के बारे में बताते समय पहले इंसान ने कैसे समझाया होगा कि "बिजली" जब भी कड़कती है तो डर लगता है, बिजली डरने की चीज़ है। दूसरे इंसान ने जब बिजली का कड़कना सुना होगा तब उसने ठीक हूबहू बताने की कोशिश की होगी ये है "बिजली" इससे डर लगता है, इससे डरना चाहिए, इसके ठीक बाद आसमान से बारिस होती है। प्रेम, द्वेष, दोस्ती, समाज, विदाई, वक़्त, परिवार सभी शब्दों के बारे में बात करते हुए मैंने कहा मैं ऐसा कुछ सोच रहा था। इतने में  वे उठें और कुछ फ़ोटो खींचकर वापस आये और कहा "सच में शब्द और भाव ज़िन्दगी के मायने बदल देते हैं, अब देखिए किसी के लिए फ़ोटो का मतलब है यादों को संजोना और मेरे लिए इसके साथ साथ है घर परिवार चलाना। अच्छा सोच रहे हैं लिखिए लिखिए। इस बातचीत के दौरान वो चार पाँच और फ़ोटो खींच चुके थे। 
     
    उन्होंने बताया वो पिछले 30 साल से फोटोग्राफी कर रहे हैं। मैंने उन्हें अपनी खींची हुई कुछ तस्वीर भी दिखाई। उन्हें काफ़ी पसंद आया। बात करते करते काफ़ी चीज़े उनके बारे में जानने को मिली। उनके फ़ोटो भी अलग अलग भाव लिए हुए अपनी यात्रा का वर्णन कर रहे थे। बहुत सारी यात्राओं और अनुभवों की बात हुई। पर "शब्द और जीवन" वहीं दो पैराग्राफ़ तक रुका है। आज के आर्मी हैलीकॉप्टर क्रैश के बारे में सुनने के बाद बस यही सोच रहा हूँ। ये मृत्यु शब्द क्या है। "मृत्यु" शब्द के बारे में सबसे पहले इंसान ने किसी को कैसे बताया होगा कि मृत्यु क्या है? उसका भाव क्या है? उसकी यात्रा क्या है? पहली बार किसने किया होगा मृत्यु को परिभाषित?

Monday 6 December 2021

यात्राएँ



     मुझे याद नहीं रेल से जान पहचान कब हुई। रेलवे स्टेशन घर से बस 10 मिनट की दूरी पर है। शहर जाने के लिए सबसे पहली ट्रेन छे बजिया ट्रेन हुआ करती थी। हालांकि ये ट्रेन हमेशा छः बजे से पहले आती थी। शहर में रिक्शा चलाने जाने वाले लोगों के साथ साथ शहर में ट्यूशन पढ़ने जाने वाले लोगों के लिए ये ट्रेन हमेशा से साथी रही। ट्यूशन पढ़ने वाले लड़के लड़कियां शहर से ट्यूशन ख़तम कर लौटते वक्त अठ बजिया ट्रेन पकड़ते थे। हालांकि ये ट्रेन ज़्यादातर आठ बजे से लेट ही होती थी। 

       फिर 9 बजे से 10 बजे के बीच आती थी नौ बजिया ट्रेन। इस ट्रेन से मेरी जान पहचान बहुत पुरानी है। उतनी पुरानी जितनी मुझे मेरा दादी का सुनाया गया हर क़िस्सा का याद होना। इस ट्रेन से मैं अलग अलग मौके पर मिलता था। एक जब लीची के सीज़न में दादी के मायके जाते थे या रात को सपने में घबरा जाने के कारण भगत से दिखाने के लिए "जोगिया मठ" जाना होता था। हाँ, जब ठंड या बारिस के दिनों में सर्दी हो जाती थी तब सीधे शहर के बैंक रोड में "डॉक्टर गोपाल जैन" या जुरण छपरा दो नम्बर रोड "डॉक्टर ब्रजमोहन" के पास जाना होता था।

       ट्रेन में सफ़र करने से ज़्यादा यादें उसके आने के इंतिज़ार में बनी हैं। मैंने दादी को कभी टिकट काउंटर पर टिकट कटाते नहीं देखा था। एक बार जब सिर्फ़ माँ के साथ डॉक्टर के पास गया था तब माँ ने टिकट कटाया था। लौटकर मैंने दादी से पूछा "तू काहे न टिकट कटबैछही?" 
तब दादी ने पीले रंग का एक पास निकालकर दिखाया। हमारे पास महीने भर का पास है इसीलिए टिकट नहीं कटाते। उस समय तुर्की से मुज़फ़्फ़रपुर का किराया 6 रुपये था। टिकट का रंग पीला हुआ करता था। 

      ट्रेन के बारे में न जाने कितनी बातें दादी ने सिखलाया है। अगर कभी किसी चीज़ के लिए ट्रेन से उतरो और गाड़ी खुल जाए तो क्या करोगे? हम सारे भाई बहन कहते "तेज़ से दौर कर पकड़ लेंगे" दादी कहती अपने पास वाले डब्बे में चढ़ जाना। अगले स्टेशन पर फिर वहाँ पहुँचना जहाँ थे। हाँ, तब मोबाइल नहीं हुआ करता था। अगर किसी परिवार का कोई सदस्य उसी डब्बे में नहीं चढ़ा तो जी घबराहट में यही कहता था "फलां छूट गया" कैसे आएगा। ये घबराहट डर में तब बदलती जब ट्रेन मुज़फ़रपुर से लौटती हुई शाम की पचबजिया ट्रेन होती। दूर के 5 किलोमीटर तक शाम को कोई सवारी नहीं होती थी। लौटते लौटते बहुत लोगों को रात के रामायण का एक एपिसोड भी छूट जाता था। हालांकि तब टीवी किसी घर का नहीं बल्कि मोहल्ले का होता था। 

      जबसे अकेले ट्रेवल कर रहा हूँ, दादी कि ये बात याद रहती है। ट्रेन खुल जाए तो सबसे नज़दीक वाले डब्बे में चढ़ जाना। मुझे जहाँ तक याद हैं दादी के साथ हमनें अक्सर पैसेंजर ट्रेन में सफ़र किया। पहली बार स्लीपर बोगी तब देखा था जब हम एक प्लेटफॉर्म से दूसरे प्लेटफॉर्म को जा रहे थे और पवन एक्सप्रेस को पार करना था। मैं जब दसवीं में आया तब मैंने रेलवे ज़ोन के बारे में पूरी तरह से जाना लेकिन मैं उनदिनों भी "शयनयान", पू म रे, वातानुकूलित, तृतीय श्रेणी सब पढ़ लेता था और समझता भी था। गुवाहाटी इसीलिए याद रहता मुझे की मैंने एक इंजन पर लिखा देखा था गुवाहाटी।

        दादी कहती थी जब भी ज़रूरत हो चेन खींचने की ज़रूरत पड़े तो बेझिझक खींचना । जब कोई ट्रेन चढ़ न पाए। कोई समान नीचे रह जाये। सही चीज़ कहने के लिए कभी मत डरना। ये तो पूरी ज़िंदगी की सबक है। पिछले कुछ दिनों से ट्रेन के साथ बहुत लंबा सफ़र रहा। अब प्लेटफॉर्म टिकट 50 का हो गया है। टिकट का रंग सफ़ेद हो गया है। ट्रेन बिजली पर चल रही है। रिक्शे चलाने वाले लोग कम गये हैं। तुर्की स्टेशन पर वो पीपल का पेड़ नहीं है अब जिसके नीचे बैठकर 9 बजिया का इंतिज़ार किया जाए। हाँ, दादी अब हमेशा साथ रहती हैं बताने को। "दौड़कर ट्रेन नहीं पकड़ना है"। 

     कितना कुछ बदल रहा है। कितना कुछ बदल जायेगा। रेल डीज़ल ईंजन से बिजली पर शिफ़्ट हो गयी है। मोदी जी ने ये भी कहा है कुछ दिनों में बुलेट ट्रेन भी चलने लगेगी। सबकुछ बदलता रहेगा। पर बिता हुआ बस वहीं रहता है भले ही वक़्त की कितनी ही पड़त चढ़ जाए। जाए वो यादें क़ब्र में दफ़न हो जायें। उन यादों से हमेशा कोपलें फूटती हैं। यात्राओं में यहीं कोपलें नयी यादें बनाने के लिए हमें ज़िंदा रखती हैं। 

अबतक कौन सी कोपलों ने आपको ज़िंदा रखा है?


@बोज़ो

Friday 3 December 2021

दिल से दिल को कौन जोड़ेगा?

 

    हर समय हम एक यात्रा में होते हैं। साथी बदलते रहते हैं। जगहें बदलती रहती है। लोग बदलते रहते हैं। मौसम बदलता रहता है। जो नहीं बदलता वो है आपका जिया हुआ वक़्त। आपमें शामिल हो चुकी कुछ यादें। ज़िन्दगी का हिस्सा हो चुके कुछ सपने। 

  कुछ सपने समय के साथ दम तोड़ देते हैं। जैसे कोरोना के समय न जाने कितने सपनों ने ख़ुदकुशी की। न जाने कितनी आँखें इसीलिये नहीं सोयी की न टूटने का भरम लगा रहे। पर सच तो सच है। टूटना सच है। तो उसके टुकड़े चुभेंगे। तक़लीफ़ होगी। साँस रुक जाना चाहेंगी। हम मर जाना चाहेंगे।

  कुछ सपने बीज की तरह होते हैं। ज़ेहन में टूट कर गिरते भी हैं तो ज़िन्दगी के नए पड़ाव में उग आने की हिम्मत रखते हैं। वक़्त लाख बंज़र करना चाहे ज़िन्दगी को पर ये सपने उग आते हैं। इन सपनों को यक़ीन होता हैं "कोंपलें फिर आएंगी"। फिर यही सपने लौटते हैं अपने क़ब्र से। जगाते हैं नींद से। कहते हैं "चल उठ जा"। सवेरा हो चुका है। टूट गये हैं तो क्या! तूने ही तो कहा था "दिल से दिल को कौन जोड़ेगा? 

  कुछ सपने ज़िद्दी होते हैं। एकदम ढीठ। लाख मुश्किलें आये। लाख तूफ़ान आये। वक़्त कहे कि तेरा मर जाना ज़िंदा रहने से बेहतर है तब भी वो ठन जाते हैं लड़ने को। लड़ते रहते हैं वो सपने हक़ीक़त से। उफ़्फ़ ये ज़िद्दी सपने! इनके चिथड़े मिलते हैं हर जगह पर ये ज़िद्दी सपने अपने आप को वक़्त से रफ़्फ़ु किये बिना नहीं रुकते। एक रोज़ ये सपने हक़ीक़त का सूट पहन के चमकते हैं। यही सपने हमेशा से कहते हैं "हम जोड़ेंगे हम जोड़ेंगे"

(इस जन्मदिन पर, ये ख़ूबसूरत पल बच्चों के साथ)

तो आप बताओ 
"दिल से दिल को कौन जोड़ेगा"?

@बोज़ो

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Saturday 20 November 2021

शराब की बोतलों ने लिखी प्रधानमंत्री को चिट्ठी

डियर 
प्रधानमंत्री जी!

     हम बिहार में "शराब की बोतलें" आपसे बहुत उम्मीद लगाये हुए हैं। हमारे साथ ये भेदभाव मत होने दीजिए। पहले सब को बराबर उपलब्ध होते थे तो कोई भी ख़रीद लेता था। ऐसा नहीं था कि सिर्फ़ पैसे वाले या पावर वाले लोग खरीदें हमकों। हमकों बिल्कुल अच्छा नहीं लगता ऐसे। हमसें भी तो कंसेंट लिया जाए। पहले जिनके पास पैसे नहीं होते थे वो अपने दिन की मज़दूरी का हिस्सा हमारे नाम करते थे। उनसा प्यार हमें सबसे मिलता था। हाँ, हम बोतलों में भरी शराब के ख़तम होने का दुष्प्रभाव हम कभी नहीं चाहते। जब भी हमारे ख़ाली होने पर कोई अपनी पत्नी को पिटता है तो सच मानिए जी करता हैं जहाँ रखें हैं वहीं से उड़ के जाए और सरपर जोड़ से लग जाये उस इंसान के। और अपने सारे बोतल समाज में उस इंसान की ख़बर पहुंचा दें कि इस इंसान के हाथ कभी न लगना। चाहे उनके पास पावर हो या न हो। कोई पुलिस हो या नेता या कोई व्यापारी ऐसे किसी इंसान के हाथ नहीं लगना हमें जो हमारे बिना कंसेंट के अपने पॉवर का धौंस जमाये।

    शराबबंदी के बाद से हम बोतलों को बहुत ही हे कि नज़र से देखा जाने लगा। छूपाने लगें लोग। ऐसे आज़ादी की बात करें तो कंगना जी की बात सही ग़लत है नहीं कहना उसपर लेकिन हमारी आज़ादी पूरी छीन गयी। बात ऐसी भी नहीं है कि हम आज़ादी चाहते हैं कि हर कोई हमारे साथ दिन रात रहने का पागलपन कर बैठे। पर हमें भी आज़ादी चाहिए। पहले दिन दहाड़े निकलते थे। अब कभी शर्ट में, कभी थम्स अप के बोतल में, कभी दवा के डब्बे में, कभी गाड़ी की डिक्की में, हमें आज़ादी चाहिए ऐसे व्यहवार से जो हमें छुपाने के लिए न जाने कौन से पॉकेट में रख लेते हैं।

      हम बोतलें ट्रक के ट्रक एक साथ पकड़ें गयें। हम बोतलें दूसरे राज्य से आते हुए पकड़े गयें। हम बोतलें गाड़ी की डिक्की में भी पकड़ें गए। हम बोतलें सुनसान खेतों के बीच ख़ुफ़िया जगह पर पकड़ें गयें। हम बोतलें लंडन ठुमकता डांस देखते समय भी धर लिए गए बाराती में। बहुत बार कहने का मन हुआ "ग़ज़ब बेइज्जती है।" लेकिन अब क्या करें हमलोग। हमलोगों को जितना इज़्ज़त पुराने शायरों ने दिया अब नहीं मिल रहा। .
ग़ालिब हमारे लिये लड़े, उन्होंने कहा:"शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर, या वो जगह बता जहाँ ख़ुदा नहीं।" वसी साहब ने लड़ा कहा "खुदा तो मौजूद दुनिया में हर जगह है, तू जन्नत में जा वहाँ पीना मना नहीं।" अब हम ये नहीं कहते कि हमें बिसलरी की बोतल जैसा इज़्ज़त मिले। लेकिन हमें चुराकर ले जाते समय एक सम्मानजनक जगह तो मिलनी 
चाहिए। 


       हम बोतलों का जब भी सृजन हुआ तब हम सब एक से थे। अपने अपने नसीब से अलग अलग पहुँचे। लेकिन भेदभाव बढ़ता जा रहा है। किसी बोतल में एक बार यूज़ होने के बाद  रिसायकिल होकर शराब भरी जा रही। और किसी में बिना रिसायकिल के बस नया स्टिकर लगा नकली शराब डाल दिया जा रहा। बार बार ऐसा होना शोषण ही तो है। हम सबके साथ एक व्यवहार होना चाहिए।


डियर प्रधानमंत्री जी!
     आप एकबार नीतीश चचा से बात कीजिये। हम शराब की बोतलों पर ध्यान दिया जाए। हम भले ही बैन करें रहिये। भले ही नाला गटर में फेंक दीजिये, लेकिन भेदभाव न कीजिये कि किसी नेता के यहाँ, पुलिस के यहाँ, पैसे वाले के यहाँ मिले और ग़रीब लोग शराबबंदी के नामपर जेल में सड़ते रहें। बस आप नीतीश चचा से कह देंगे तो सब ठीक हो जाएगा। काहे की हम सबको अभी भी अच्छे दिनों की उम्मीद है और दिल में बसा हुआ है ; मोदी है तो मुमकिन है।

समानता के इंतिज़ार में,
उदास शराब की बोतलें।


लेखक- सन्नी कुमार बोज़ो
20/11/2021

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